यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -५८

सर्वसामान्य राजनेता

विशाल द्विभाषिक की नौका समिति-परिषद के भयंकर तूफान और आँधीसे बचा कर सुरक्षित हालतमें किनारे लगाने में यशवंतरावने अपना खून और पसीना एक कर दिया । नये राज्य की निर्मितिके समय जो जो संकट आये, विपत्तियाँ टूट पडीं, मतभेदों की खाई बढती गई और पग पग पर व्यक्तिगत बदनामी की बौछारें सहनी पडीं उस समय उफ् तक न किया बल्कि धैर्य से, शांतिसे और दृढता से उसका सामना अंत तक पत्थर की तरह अपनी नीति, सिद्धांत और निष्ठा पर कायम बने रहे । समुद्र-मंथन के समय जो वस्तुएँ निकलीं उनका सही बँटवारा करते समय 'विष-घट' की बारी आई । उसे लेने के लिए कोई तैयार न था । न देवता चाहते थे न दानव ! इसी बात पर दोनों दल अड 

गये । क्षणार्धमें शांत वातावरणमें अशांतिकी लहर फैल गई । देव दानव मर मिटने के लिए तैयार हो गये । कैलासपति शिव शंभु से देव-दानवों का यों क्षुल्लक क्षुल्लक बातों पर लडना-झगडना देखा न गया । उन्होंने प्रकट हों, विषघट होठों से लगा दिया और एक ही घूँट में पी गये । वे सर्वशक्तिधारी होने के कारण विष जैसा विष हँसते हँसते पचा गये पर कंठ नीला अवश्य पड गया । तभी से मृत्युंजय और भगवान नीलकंठ कहलाये । निखिल सृष्टिके 'शिवम् सत्यम् सुंदरम्' के प्रतीक ! उसी तरह भाषाई-आन्दोलन से निकले साम्प्रदायिक वृत्ति, और भावना, विक्षिप्‍तता रूपी विषघट को यशवंतराव होठों से लगाकर एक ही साँस में गट कर गये ।

उन्होंने अपने साथियों के सहयोग से अल्पकालमें ही प्रशासन की दृष्टि से नये बम्बई राज्यको सारे भारत का प्रथम पंक्ति का राज्य सिद्ध कर दिखाया । सुयोग्य नेतृत्व, व्यवहार्य बुद्धि, मृदु स्वभाव और सामंजस्य वृत्ति से बम्बई राज्यको प्रत्येक क्षेत्रमें उन्नति और प्रगति के पथ पर आगे बढाया । राज्य सरकारकी नई नई योजनाओं के अन्तर्गत सहस्त्रों लोगों को आमदनी का जरिया दिलाया । नये नये उद्योगोंका श्रीगणेश हुआ । शैक्षणिक और सांस्कृतिक क्षेत्रमें नया ज्वार आया । प्रजा की राजनैतिक, सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक गतिविधियों को बल मिला । और काँग्रेस श्रेष्ठि वर्ग तथा संसद गृह के माननीय सदस्यों के आदेश स्वरूप प्राप्‍त विशाल द्विभाषिक का प्रयोग सर्व दृष्टि से सफल सिद्ध हुआ । यशवंतराव के नेतृत्व और संगठन-चातुर्य से मराठी और गुजराती भाषी पूर्णतया संतुष्ट रहे । नये राज्य की नींव गुजराती-मराठी जनता के हृदयमें घर करती जा रही थी । लेकिन भावनात्मक ऐक्य की कल्पना और पारस्परिक भ्रातृत्व प्रेम की आकांक्षा सफल न हो सकी । संयुक्त महाराष्ट्र समिति और महागुजरात जनता परिषद अपनी छिछोरी हरकतों से बाज न आ रही थी । वह रह रह कर कुछ ऐसी वारदातें करतीं कि जनता की भावना प्रक्षुब्ध हो उठती । सरकार विरोधी जहरीला प्रचार और अघटित कृति शुरू ही थी । इन सबमें योग्य मार्ग निकालना जरूरी था; वर्ना केरलकी तरह महाराष्ट्र में भी साम्यवादी जाल फैलाने का पूरा डर था । समय रहते न सम्हलें तो परिस्थिति काबू से बाहर हो जाते देर न लगेगी । अतः पर्दे के पीछे उच्चस्तरीय विचार-विनिमय कभी का शुरू हो गया था ।

काफी सोच-विचार के पश्चात् सन् १९५९ के मध्यमें सर्व प्रथम केन्द्रीय गृहमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंतने एक स्थान पर कहा कि अब वह समय आगया है जब विशाल द्विभाषिक के बारेमें सामंजस्यपूर्ण वातावरण में पारस्परिक सद्‍भावना के साथ साधक-बाधक चर्चा कर अंतिम और ठोस निर्णय कर लिया जाय । गृहमंत्री पंत के कथन की अस्पष्ट पुष्टि पंडित नेहरूने अपने बम्बई तथा पूना के सार्वजनिक भाषणों में की । नई दिल्ली में काँग्रेस कार्य-समिति की बैठक में इस प्रश्न को लेकर काफी विचार-विमर्श हुआ और यह प्रश्न तत्कालीन काँग्रेसाध्यक्षा सुश्री इंदिरा गांधी के सिपूर्द कर दिया गया ! काँग्रेसाध्यक्षा को गुजरात-महाराष्ट्र का प्राथमिक दौरा कर बंगलूर अधिवेशन में विवरण पेश करना था । बंगलूर अधिवेशन में सुश्री गांधी की अध्यक्षता में एक नौ-सदस्यीय काँग्रेस उच्च समिति गठित की गई, जो विभाजन सम्बंधित प्राथमिक बातें तय करनेवाली थी । इतना सब होना था कि गुजरात-महाराष्ट्र में विभाजन की वार्ता तेजी से फैल गई । लोगों को लगा कि उनका दुःसाध्य सपना साकार हो रहा है । भाषिकप्रश्न पर काँग्रेस की कटु टीका करनेवाले अखबारोंने बडे बडे शीर्षक देकर अग्रलेख लिख कर विभाजन-वार्ता का बडे ही उत्साह से स्वागत किया । काँग्रेस से अलग हुए असंख्य कार्यकर्ता पुनः अपने मातृ-दल में सम्मिलित होने लगे । डॉ. नरवणे के नेतृत्व में काँग्रेस से विलग हुई काँग्रेसजनपरिषद पुनः काँग्रेस में मिल गई । विरोधियों की सभी चालें बेकार हो गईं । वे चौंक पडे ।