प्रतापगढ समारोह का आयोजन करनेवाली स्मारक-समिति शिव-शक्ति के उपासकों की बनी हुई थी अर्थात् आम जनता के प्रतिनिधियों की थी । उसमें किसी व्यक्ति विशेष अथवा दलको श्रेष्ठता प्रदान की गई हो ऐसी बात न थी । फिर भी समितिनेताओं ने जब समारोह का पूर्णरूप से बहिष्कार कर दिया तब अपने आप ही प्रतापगढ का समारोह काँग्रेसियों का अपना बन गया । और यशवंतराव राज्यके मुख्य मंत्री होने के कारण तथा पंडितजी उद्घाटक बन कर आ रहे थे । अतः प्रस्तुत कार्यक्रम को सफल बनाने की सारी जिम्मेदारी काँग्रेस दल की हो गई । समारोह में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र के कोने कोने से अपार जनसमुदाय उमडा पडा था । जहाँ तक नजर जाती लोगों के सिर ही सिर दृष्टिगोचर होते थे । लगभग एक लाख से अधिक लोग उपस्थित थे इस प्रसंग पर ! ३० नवम्बर की सुबह में पंडित नेहरू के खिलाफ निर्देशकोंने काली झंडियाँ लेकर प्रचंड निर्देशन किये । वाई से प्रतापगढ तक पुलिस का सख्त बंदोबस्त था । पास के बिना किसीको आगे नहीं बढने देते थे ।
दोपहरमें शांतिदूत पंडित नेहरूने अपूर्व उत्साह के वातावरणमें, शिवाजी महाराज, पंडित नेहरू और यशवंतराव के गगनभेदी जयकारों के बीच सृष्टिसौन्दर्य के अनन्य प्रतीक प्रतापगढ दुर्ग में छत्रपति शिवाजी महाराज की लगभग ३८ फीट ऊंची अश्वारोही प्रतिमा का अनवारण किया । तत्पश्चात् शिवाजी महाराज की महानता, वीरता और अतुल्य दूरदर्शिता का गुणानुवाद करते हुए पंडितजीने कहा : ''छत्रपति शिवाजी महाराज स्वयं एक महान् विभूति होकर राष्ट्रीय स्वातंत्र्य के प्रतीक हैं । वे केवल महाराष्ट्र के ही नहीं बल्कि समस्त भारत के सपूत हैं । उनके सामने जो प्रश्न और समस्याएँ थीं, वे विषम थीं । लेकिन अंत तक पदच्युत और नीतिच्युत हुए बिना उन्होंने उनका बडी ही वीरता से सामना किया । आज की समस्याएँ अलग हैं, प्रश्न अलग हैं, परिस्थिति अलग है । लेकिन हम उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढें । सफलता हमारे चरण छुएगी ।'' तालियों की गडगडाहट से आस्मान गूंज उठा । शिवाजी महाराज और पंडित नेहरू के जयनादों से जमीन का कप्पा कप्पा काँप उठा । कभी किसी काल में छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में देश की आजादी और एकता के लिय सिर हथेली पर लेकर लढनेवाले मर्द मराठोंके जयघोषों के दीर्घावधि बाद ऐसे ही जयघोष सुनकर निःसंदेह वृद्ध प्रतापगढ का रोम रोम पुलकित हो उठा होगा !