यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -७

यशवंतरावके कॉलेज-जीवनके एक घनिष्ट मित्र थे श्री राघुअण्णा लिमये । श्री लिमये आजकल सातारा जिला ग्रामोद्योग संघके अध्यक्ष हो, राष्ट्रीय-विचारधारासे ओत-प्रोत हैं । वे प्रायः राजनीति, आर्थिक विषमता, सत्यशोधक समाजके कार्य, देशकी आजादी और देशी नौकरशाहीके दमन-चक्रसे त्रस्त निरीह जनताकी मुक्तिके बारेमें यशवंतरावसे घंटों बहस और सलाह-मशविरा करते रहते थे । उस समय यशवंतराव पर सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी स्व. कलंबे गुरुजीकी विचार-धारा और स्वातंत्र्य-वीर बॅरिस्टर सावरकरजीकी कृति 'माझी जन्मठेप' का अच्छा-खासा प्रभाव पडा । स्वर्गीय कलंबे गुरुजीको यशवंतरावकी प्रेरणा-मूर्ति भी कहे तो अतिशयोक्ति न होगी । कलंबे गुरुजीने राष्ट्र-सेवाका मूल-मंत्र लोकमान्य तिलकसे पाया था । लोकमान्य तिलक पर जब पुलिसकी कडी निगरानी थी तब कलंबे गुरुजी पूनाकी ट्रेनिंग कॉलेजमें अध्ययन कर रहे थे । देश-सेवाका आव्हान मिलने पर कलंबे गुरुजी और उनके १५० शिक्षक-साथियोंने सरकारसे विद्रोहकर गोरे अफसरोंका खून करनेका षड्यंत्र रचा । मौका पाकर कलंबे गुरुजीने अपनी योजना लोकमान्य तिलकको पर्वती और एस. पी. कॉलेजके दरमियान गुप्‍त रूपसे मिलकर बताई । लेकिन लोकमान्यने उस समय योजनाको ठुकराते हुए कहा कि शिक्षकोंको आन्दोलन और ऐसे कार्योंमें भाग नहीं लेना चाहिये । बल्कि उन पर तो भारतकी भावी पीढी तैयार करनेकी बहुत बडी जिम्मेदारी है । अतः उन्हें चाहिए कि वे प्रत्येक पाँच-पाँच ऐसे विद्यार्थी तैयार करें, जो देशकी आजादीकी नींवका पत्थर बन सके । स्व. कलंबे गुरुजीने लोकमान्यकी बात मानकर विद्यार्थी तैयार करनेका मार्ग अपनाया । उन्होंने प्रायः अपने विद्यार्थियोंको देश-सेवा, जनहित और कर्तव्यनिष्ठाका पाठ पढाया । परिणामस्वरूप स्वर्गीय कलंबे गुरुजीके शुद्ध आचरण, क्रांतिकारी विचार और कार्यप्रणालीका यशवंतराव पर अच्छा असर पडा । साथ ही सावरकरजीकी कृतिसे प्रेरित हो कर वे मन ही मन सशस्त्र क्रांतिकी ओर खींचे जा रहे थे । और इस तरह देशको गुलामीकी बेडियोंसे आजाद करानेके सपने देखा करते थे । उनके इन क्रांतिकारी विचारोंमेंसे ही श्री सावरकरजीकी प्रत्यक्ष भेंट लेकर उनसे विशेष वार्तालाप करने की मनीषा का प्रादुर्भाव हुआ । परिणामतः मित्र श्री राघुअण्णा लिमयेको साथ लेकर वे रत्‍नागिरीकी ओर पैदल ही चल पडे । जब वे रत्नागिरी पहुँचे, तब सावरकरजी अपने मित्रोंके साथ बैठे ताश खेल रहे थे । यशवंतरावने श्री सावरकरजीसे सशस्त्र क्रांतिके बारे में सविस्तार चर्चा की और कोल्हापुर लौट पडे ।

उन्हीं दिनों सशस्त्र-क्रांतिकी एक योजना कार्यान्वित करनेके लिए वाईके तर्कतीर्थ श्री लक्ष्मणशास्त्री जोशीजीने अखिल महाराष्ट्रके सुशिक्षित नौजवानोंका एक संगठन बनाया था । यशवंतराव उस समय कोल्हापुरके राजाराम कॉलेजके विद्यार्थी थे । उसका भी तर्कतीर्थ श्री लक्ष्मणशास्त्री जोशीजीके संगठनसे थोडा बहुत सम्बंध था । क्रांतिकारियोंने चुपके-चुपके शस्त्र और बारुदका संचय किया । क्रांतिके लिये जरूरी सभी साधन जुटाकर उसे सफल बनाना ही सभीका मनोदय था । यशवंतरावको भी सावरकरजीकी 'माझी जन्मठेप' पुस्तकका पठन एवं बंगालके क्रांतिकारियोंके वीरोचित कार्योंके प्रति सम्मान भावनाके कारण सशस्त्र क्रांतिसे जरा-जरा लगाव हो गया था । लेकिन सशस्त्र क्रांति सफल हो जाने पर राजनीतिक दृष्टिसे देशको जो लाभ होगा उससे कई गुनी हानि उसे सशस्त्र क्रांतिके असफल हाने पर होगी--और देशकी हानि सामान्य जनताकी हानि । देशी नौकरशाही इसका बदला गरीब बिचारी प्रजासे लिये बिना नहीं रहेगी--ये विचार उनके युवक और उत्साही हृदयको हर समय कोसते रहते थे । अतः उनकी मनःस्थिति डाँवाडोल हो गई । आखिरकार सत्यकी विजय हुई और दीर्घकालीन मनोमंथनके पश्चात् उन्होंने सशस्त्र-क्रांतिका परित्याग ही योग्य समझा ।

ठीक उन्हीं दिनों यशवंतराव कोल्हापुरकी जिस चॉलमें दूसरे विद्यार्थी-सहयोगियोंके साथ रहते थे वहाँ एक बार चोरी हो गई । उसमें उनकी कॉलेज फीस ही चुरा ली गई । परीक्षा सर पर सवार थी । फॉर्म भरनेकी अंतिम तिथि दूसरे दिन थी और यहाँ फॉर्म-फीसके भी लाले पड गये । ऐन समय पर फीस भरी न गई तो परीक्षामें कौन बैठने देगा ? उनके सामने निराशाका गहरा सागर लहरा रहा था । कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था कि अचानक उनके मित्र श्री गौरिहर सिंहासनेकी भेंट हो गई । उन्हें वास्तविक स्थितिका पता लगा । उन्होंने फीसकी रकम शीघ्र ही भर दी । ''A friend in need is a friend indeed ! '' की तरह उत्कट मित्र-प्रेमके कारण यशवंतराव इस मुसीबतसे बाल बाल बच गये और परीक्षामें सम्मिलित होकर सफल सिद्ध हुए । इस तरह कारां और शालाका चक्कर लगाते हुए सन् १९३९ में बी. ए. तथा सन् १९४१ में एल. एल. बी. की उपाधियाँ यशवंतरावने प्राप्‍त कीं ।