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यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -१३

सन १९५२ में पूनाकी 'वसंत व्याख्यान माला' का उद्‍घाटन करते समय यशवंतरावने 'हिन्दी जनतन्त्रका भविष्य' विषय लेकर जो उद्‍घाटन-प्रवचन किया वह उनमें रहे साहित्यिक पहलूका एक उत्कृष्ट नमूना है । राजनैतिक व्यासपीठ परसे होनेवाले उनके भाषण केवल शुष्क राजकीय पुराण या निरी बकवास 'थोथा चना बाजे घना' नहीं होते बल्कि उसमें भी साहित्य-रस, मानवतावादी दृष्टिकोण, अनुभूति और आकांक्षाओंका प्रतिबिंब होता हैं । उन्होंने अपने भाषण में मनुष्यों की सृजन-शक्तिको आव्हान देते हुए बताया था कि जनता-जनार्दनकी कार्यप्रवणता पर ही हिन्दी जनतंत्रका भविष्य सर्वस्वी निर्भर है । उन्होंने कहा : ''जहाँसे विविध मार्ग फूट रहे हैं ऐसे चोराहेपर आज विश्व खडा है और किस मार्गसे जानेपर अभ्युदय होगा इस संभ्रममें पडा हुआ है । ऐसे संभ्रम-कालमें जनतंत्रका एक महान् प्रयोग हम कर रहे हैं । हमारी सिद्धि-असिद्धि पर ही विश्व-जनतंत्रका भविष्य अवलंबित है । आंतर-बाह्य शत्रुओंसे देशका संरक्षण ही जनतंत्रका आशय नहीं बल्कि जनहितकारी राज्यको निर्मिति कैसे हों - यह भी एक प्रश्न है । स्वतंत्र हो जाने पर भी देशके सामने कितनी ही ऐसी समस्याएँ हैं, जो अभी तक हल नहीं हुई हैं ! तो क्या उन्हें हल करनेके लिए चीन-रूसका मार्ग अपनाना चाहिए ? या पिछले ६०-७० सालसे दादाभाई नवरोजीसे लेकर प्रधानमंत्री नेहरूजी तक हमारे महान् नेताओंने जनतंत्रकी जो एक महान परिभाषा और परंपरा दी है - उसके जरिये हल करनी चाहिए । हमारे सामने यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है - जिसके प्रत्युत्तर पर ही हिन्दी जनतंत्र-प्रणाली उत्तम है या अशुभ इसका निर्णय हो सकेगा । फ्रेंच राज्य-क्रांतिसे जनतंत्रकी कल्पनाका उद्‍गम हुआ लेकिन आज वहाँ जनतंत्रकी भावना परसे लोगोंका विश्वास उडने लगा है । ऐसे संधि-कालमें हिन्दी-जनतंत्र प्रणालीका उदय हुआ है । जनतंत्रके बारेमें हमारे महान् नेताओंकी विचारधारा एक-दूसरेसे किंचित् भिन्न भी हो सकती है पर आजके भारतीय जनतंत्रमें दादाभाई नवरोजी, न्यायमूर्ति रानडे, लोकमान्य तिलक, राष्ट्रपिता पूज्य बापू एवं प्रधानमंत्री नेहरूजीकी विचार-धाराका ही प्रतिबिंब झलकता है । विरोधी नेता प्रायः यह कहते सुने गये हैं कि हमारे प्रधानमंत्री नेहरूका चाँग-के-शेक होते देर न लगेगी । लेकिन इससे कोई समस्या हल नहीं हो जाती । अगर पंडित नेहरूका चँग कै-शैक हो जाएगा तो भारतीय जनता और भारतको जो बडी-भारी कीमत चुकानी पडेगी - इसका शायद किसीने विचार तक नहीं किया है ।

''गरीब जनताके मनमें नई आशा, उमंगें और महत्वाकांक्षाओंका बीजारोपण कर कार्य-प्रवण बनानेके बजाय अगर उसमें असंतोष की आग ही भडकाते रहे तो रातमें उनके हाथ धनिकोंकी तिजोरी पर ही पडेंगे । इससे समस्या हल हो जाएगी? धन, देशके मुडीवादी या सरकारकी तिजोरीमें बंद न हो, आकाशमें क्रीडा करते बादलोंमें हैं, बादलके गर्जन-वर्जनके साथ गिरती जलधारामें है, जलधारासे बनी नदीके प्रवाहमें है, नदीके दोनों कूलोंके तर हो जानेसे उर्वरा बनती काली मिट्टीमें है, जमीनकी खनिज संपत्तिमें है, खनिज संपत्तिसे बनती वैज्ञानिक यंत्र-सामग्रीमें है, लहराते खेल-खलिहानोंमें हैं और इन सबको अपनी मुठ्ठीमें बंद करनेवाले अजेय मानवमें है । अगर कोई इस बातकी प्रतीति जनता-जनार्दनको करा, उनमें नवचैतन्य निर्माणकर कार्य-प्रवण बना दें तो हमारी सारी समस्याएँ चुटकीमें हल हो जाएँगी । और समस्याओंके हल होनेमें ही हिन्दी जनतंत्र-प्रणालीका भविष्य अवलम्बित है ।''

यशवंतरावने पैसा या संपत्ति पैदा करने--प्राप्‍त करने की रीत बताते हुए जो भव्य शब्द-योजनाकी । उस शब्द-रचनाके ताल पर भला किस भारतीयका मन डोल नहीं उठेगा ? उक्त शब्द-रचनासे संपत्तिकी सच्ची परिभाषा सुन कर कौन आनन्दसे झूम न उठेगा ? यशवंतरावके साहित्यकी थाती उनकी इस वेगवती और वैचारिक वाणीमें ही है ।

यशवंतराव राजनैतिक तत्वज्ञानका अध्ययन-मनन करनेके लिए बाह्य-पठन करते हैं, ललित-साहित्यका आनन्दोपभोग उठानेके लिए वाचन करते हैं और राज्य-प्रशासन चलानेके लिए आवश्यक जानकारी प्राप्‍त करने के लिए वाचन करते हैं । जब वे गृह-विभागके संसदीय मंत्री थे तब उन्होंने यूरोप और एशियाकी विभिन्न राज्य-प्रशासन पद्धतियोंका सखोल अभ्यास किया था । स्वायत्त शासन मन्त्री बने तब उन्होंने अमरीका युरोपकी स्वायत्त शासन संस्थाओंसे संबंधित विविध विषयोंका अभ्यास किया था । जब पूर्ति और वनमन्त्री थे तब अपने विभागसे सम्बंधित ग्रन्थ, विवरण और लेखमालाओंका अभ्यास किया था । और राज्यके मुख्य मंत्री बन जाने पर राज्य प्रशासनके सर्व सामान्य स्वरूपकी जानकारी प्राप्‍तकर राज्यकी सर्वतोमुखी उन्नति करने हेतु हर पहलूका सूक्ष्माध्ययन किया है और करते रहते हैं । वैसे देखा जाय तो यशवंतराव एक प्रशासन-पटु, अद्‍भुत प्रतिभाशाली, कुशल राज्यकर्ता और अध्ययनशील राजनीतिज्ञ (scholar statesman) हैं ।